मै तुम्हारी यादों का तर्जुमा करती रही रातभर,
दरवाझा खोलके याद आई,
पर सन्नाटे सी गुंजती रही रातभर!
युं सोचुं के सामने तुम हो,
पर परछाई सी छाई रही रातभर !
आवाझ तो कोई न थी कही भी,
पर सरआम गीत गुंजता रहा रातभर!
तुम्हारी उन्गलीयोंमे उंगलीयां पीरोके,
गिन्ती सही की थी मिलनेकी,
पर तन्हाई ही कटती रही रातभर !
काश,की तुम याद के साथ चले आते,
पर, सिने मे याद चुभती रही,
पुकारने के लब्झ न मीले रातभर !
काश, तुम मिले ना होते
ऍक बेमौसम बारीश की तरह,
पर मील गये हो तो बरसते क्युं नहीं रातभर !
**ब्रिंदा**
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