Thursday, September 15, 2011

मै तुम्हारी यादों का तर्जुमा करती रही रातभर,

दरवाझा खोलके याद आई,
पर सन्नाटे सी गुंजती रही रातभर!

युं सोचुं के सामने तुम हो,
पर परछाई सी छाई रही रातभर !

आवाझ तो कोई न थी कही भी,
पर सरआम गीत गुंजता रहा रातभर!

तुम्हारी उन्गलीयोंमे उंगलीयां पीरोके,
गिन्ती सही की थी मिलनेकी,
पर तन्हाई ही कटती रही रातभर !

काश,की तुम याद के साथ चले आते,
पर, सिने मे याद चुभती रही,
पुकारने के लब्झ न मीले रातभर !

काश, तुम मिले ना होते
ऍक बेमौसम बारीश की तरह,
पर मील गये हो तो बरसते क्युं नहीं रातभर !

**ब्रिंदा**

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