एक पल तुम्हे सोचू,
फिर सोचू,
तुम्हे मैं क्यूं सोचू?
तेरा आना चुपके से,
दबे पांव सुस्त से सपने जैसा,
अपने सपने को शबभर चलाना,
फीरभी मेरे दिल का युं उंमडना,
एक पल के लिये भी
मै तुम्हे क्युं सोचू?
पत्ते गिरते है पतझडमें तडपके नीचे जमी पे,
एक साल तरसते हैं जैसे,ताकते रहेते हैं,नीचे बिछी जमीं को,
तेरा ऐसे ही तडपके मुझेयुं मीलना,
फिर भी,एक पल भी कभी ना मैं तूम्हे सोचू !
एक पल सोचूं तुम्हे,
मैं जब 'मैं" बोलुं तो सोचूं की,
मैं 'तु" बोलुं!
ईतनाभी फासला नही है, मैं और तुं के बीच,
फीरभी मैं तुम्हे एक पल क्युं सोचुं ?
जब एक पल तुम्हे सोचू,
ठंडी चट्टानो पे चलते, पांव मे मीठी ठंडक लगे जैसे,
फिरभी कोहरे की खूश्बु और गर्मी सा,
तेरा मुझसे गुफ्तगु करना,
एक पल सोचूं तुम्हे,
की कभी ना तुं सोचे मुझे!!!!!
**ब्रिंदा**
No comments:
Post a Comment