Monday, April 16, 2012

रोज एक नया शब्द चूनुं,
की पक्का, ईसी पे ही मैं लिखुंगी तुम्हारे बारे में!
फीर लिखते वक्त वो फीका लगे,
तुम्हारे बिना कटती दोपहर की धूप जैसा,
कडी धूपसे शब्द चूभते हैं,कांटे लगाते हैं,
और मैं पलके झुका लेती हुं!

फीर सोचूं,कोई नया शब्द,
तो कभी वो लगे नया चांद हो जैसे,
दुज का चांद हो जैसे!
फीर मैं निहारुं प्यार से उसे,
तो निहारने में वक्त चला जाये!

चांद को भी मालुम हैं की मुजे लिखना हैं,
वो मन ही मन मुकुराता हैं ,
की "पागल हैं....लिखेगी नही, सोचती रहेगी...."
ताझे चांदनी के दूध में डूबते हैं शब्द और मैं भी !
पर मैं, परदा खींच लेती हुं, खिडकी के,
और नया शब्द चूनती हुं. शायद... नया शब्द तुम , तुम !!

कहो?
फीर लिखना क्या? मैं खो जाती हुं, तुम में !
गर ,एक दिन सच में  डूब  जाऊं, खो जाऊं
ईसी लिये रोज चूनती हुं एक नया शब्द !
तुम्हे कहेना कुछ छूट ना जाये,
ईसी लीये चूनती हुं रोज एक नया शब्द !
**ब्रिंदा**

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