तुम्हारी बातें,
रुकती नही,
थकती नही,
कुदती जैसे उछलती,
एक से अनेक धारामे बहेती,
तुम्हारी बाते!
बहेती जैसे सबको बहा देगी,
चोटी से तल तक भिगोती,
नादान कभी,
अजनबी कभी,
फिर भी गहरी सोच मे डुबी जैसी,
तुम्हारी बातें!
मैं सुनती हुं,
लीन रहेती हुं जैसे खोईसी,
कभी खिंचती हुं,
कभी बिछडती हुं,
फिर भी तेरे भावों के साथ बहेती,
तुम्हारी बाते!
मैं चाहुं,
सदियां भले हो भी,
तुम कहेते रहो,
उसी मस्त उंमादसे भरे भले ही हो!
कुदती बिखलती,हवाओं मे फैले,
और गुंजे हर दिशामें,
तुम्हारी बाते
मैं बस,,,, सुनती रहुं तुम्हारी बाते!
...........सुनती रहुं!!
**ब्रिंदा**
me in also in search of any soon ne wali....
ReplyDeleteha ha ah ah
well said brinda ji,,,,
मैं बस,,,, सुनती रहुं तुम्हारी बाते!
ReplyDeleteबहुत खूब,सराहनीय रचना।
मार्क्ण्ड दवे।
http://mktvfilms.blogspot.com