Friday, December 17, 2010

रात कुछ दिन और रुक जाती तो क्या जाता, ऐ दिल!
एक रात में ही हम दुनिया बसा लेते तो क्या जाता, ऐ दिल!

रात में एक खूश्बुसी धूली थी,
रात खमोश कहां थी?
कुछ कुछ गुनगुनाती भी थी,
मैं ऐसे ही मोती पिरोती रही,
तेरी मुस्कान के,
तेरी आंखोके ईशारो के,
उंगलियां ऐसे ही,
उंगलियों से मीलती रही,
आंख मे आंख पिरोती रही!
पता नही क्या बात कहेनी थी, सुननी थी,
आंखो आंखो मे जो आंख मिलाते चले,
पल्के जपकी भी नही, ऐसे बात करते गये,
रात भर जाने क्युं आहिस्ता आहिस्ता मे धुलती गई,
रात तो सोने के लीये है ना जानम?

पर, हम तो ऐसे जागे जैसे अपने आप मे जाग गये!
फिर भी है जैसे पाया युगो की निंद का सूकुन्!
**ब्रिंदा**

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