Thursday, August 2, 2012

मेरी ये कैसी शिकायत है, आयने से,
कल तो आयने का बागीचा कैसे खिल उठा था!
जैसे बारीश में भीगे हुए खीले खीले नझारे !
चांदनी में नहाई हुई वो तस्वीर आयने मे थी !
चांदनी भी कैसी जैसे सुनहरे पल, पल-पल बिखरती हुई !

आज ये कैसी शिकायत है , आयने से ?
हंसना भी तो आयने से नझरे मिलाते ही फुटता था !
चहेरा कभी ताजे ओंस का रुप ले लेता था !
आयना देखना तो क्या मैं तुम्हे देखती थी,
मैं अपने आप से नहीं सिर्फ तुम्से गुफ्तगु करती थी !

अब ये शिकायत हैं मेरी आयने से,
बारीश के बाद कि धुप में बागीचा आयने का सुमसान हैं!
नझरे कोहरे के धुंए से झांक कर तुम्हे ढुंढती हैं !
नझरे सुमसान थी या आयने का बागीचा, वो ताज्जुबी हैं !
धुप सी चमकती आंखों की ओंस खोईसी हैं !

आज मेरी शिकायत तुम से भी हैं, तुम से ही हैं,
ऐसी मीठी सी प्यारी शिकायत तुम्ही से हैं,
की बस् तुम आ जाओ, फीर कैसी शिकायत्?

**ब्रिंदा**

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